रविवार, 11 दिसंबर 2016

मोदी जी के इस महा घपले पर फिर एक बार ...

-अरुण माहेश्वरी



भारत में नोटबंदी के क़दम को दुनिया की प्रतिष्ठित पत्रिका 'इकोनॉमिस्ट' ने अपने ताज़ा अंक (3 दिसंबर) में अच्छे उद्देश्य से बर्बादी लाने वाला एक अधकचरा कदम बताया है । ‘इकोनोमिस्ट’ के इस लेख में दुनिया के उन देशों का उल्लेख है जिनकी सरकारें ऐसी कार्रवाई करके अपने देशों को बर्बाद कर चुकी हैं । आज तक एक भी देश को ऐसे क़दम से कोई लाभ नहीं हुआ है । "फिर भी मोदी ने उनसे कोई सबक़ नहीं लिया और एक ऐसा घपला कर दिया जिससे उसके घोषित उद्देश्यों के पूरा होने पर भी देश को अनावश्यक नुक़सान होगा ।"

'इकोनॉमिस्ट' ने मोदी जी को ऐसी अफ़रा-तफरी मचाने वाले क़दम को वापस लेने की भी सलाह दी है । इसमें उनके इस प्रकार के बयानों का मज़ाक़ उड़ाया गया है कि धनी लोग नींद की गोलियों के लिये भाग रहे हैं और ग़रीब चैन की बंशी बजा रहे हैं । साफ शब्दों में कहा गया है कि पचास दिन की प्रतीक्षा के बाद भारत में कोई स्वर्ग नहीं उतरने वाला है । इस टिप्पणी के अंत में इस बात पर संतोष व्यक्त किया गया है कि भारत में उत्तर कोरिया की तरह तानाशाही नहीं है । यहाँ के लोग चुनावों में मोदी के द्वारा मचाई गयी इस अफ़रा-तफरी का पूरा जवाब देंगे ।

ग़ौर करने लायक बात यह है कि 8 नवंबर को घोषित नोटबंदी पर 'इकोनॉमिस्ट' की लगभग महीने भर बाद, शायद यह पहली प्रतिक्रिया थी ।

इसीप्रकार, लगभग एक महीने बाद रिजर्व बैंक ने भी इस विषय पर अपनी चुप्पी को तोड़ा है। हांलाकि रिजर्व बैंक के गवर्नर ने इस कदम को एक सुचिंतित कदम बताया है, लेकिन इसके प्रभाव से अपनी मौद्रिक नीतियों को दूर रखना ही उचित समझा है । 7 दिसंबर तक, नोटबंदी के बाद बैंकों में साढ़े ग्यारह लाख करोड़ नगद जमा हो चुके थे, लेकिन उम्मीद के विपरीत आरबीआई ने रेपो रेट और रिवर्स रेपो रेट में कोई परिवर्तन नहीं करने का निर्णय लिया है । अर्थात, आरबीआई का यह साफ़ अनुमान है कि आज बैंकों के पास जो रुपया इकट्ठा हो रहा है वह एक नितांत सामयिक मामला है । करेंसी की आपूर्ति में थोड़ी सी सहूलियत होने के साथ ही यह पूरी राशि कपूर की तरह बैंकों से उड़ जायेगी ।

इसीलिये नोटबंदी से बैंकों में लाई गई राशि से आरबीआई अपनी नीति में किसी प्रकार के दीर्घकालीन प्रभाव के परिवर्तन करने के पक्ष में नहीं है । बैंकों में नगदी की भरमार की सामयिक समस्या से निपटने की सारी ज़िम्मेदारी उसने बैंकों के ही सिर पर मढ़ दी है । अब ब्याज की दरों को गिराने अथवा बढ़ाने से जुड़ा सारा जोखिम सभी बैंकों को खुद पर लेना होगा । इसमें आरबीआई की उनको कोई मदद नहीं मिलेगी ।

सुनने में आया था कि आरबीआई ने सरकार को बाज़ार को स्थिर करने के लिये बाज़ार से तीन-चार लाख करोड़ रुपये उठाने की एक योजना लागू करने का प्रस्ताव दिया था । लेकिन ऐसी किसी भी मार्केट स्टैबिलाइजेशन स्कीम को लाने के लिये सरकार को संसद की मंज़ूरी की ज़रूरत पड़ेगी । जब मोदी जी खुद संसद से भाग रहे हैं, आयकर विधेयक का काँटा अभी अटका हुआ ही है, तब एक और ऐसी वित्तीय स्कीम के लिये संसद में जाने की हिम्मत जुटाना इस सरकार के वश में नहीं है । इसीलिये आरबीआई ने भी बैंकों को उनकी जमा राशि पर किसी प्रकार का लाभ देने से इंकार कर दिया है ।

आरबीआई ने इसके साथ ही इतना जरूर स्वीकारा कि नोटबंदी का विकास की गति पर धक्का लगा है,  जीडीपी में वृद्धि की दर में 0.5 प्रतिशत की गिरावट आ सकती है। लेकिन इससे मुद्रा-स्फीति पर क्या प्रभाव पड़ेगा, इसके बारे में उसने कोई आकलन नहीं किया है ।

नोटबंदी के महीने भर बाद आरबीआई का यह रुख़ मोदी सरकार के नोटबंदी के 'क्रांतिकारी' क़दम के मुँह पर एक बड़ा तमाचा है । सबको अब यही लग रहा है कि अंततोगत्वा यह क़दम भारत की जनता के जीवन में तबाही लाने वाला और एक विकासमान अर्थ-व्यवस्था में अंतर्घात करने वाला क़दम साबित होगा जिसके दुष्प्रभाव से कोई नहीं बचेगा, बैंक भी नहीं । इसमें लाभ होगा सिर्फ पेटीएम आदि की तरह की कुछ ग़ैर-बैंकिंग निजी वित्तीय कंपनियों को ।

अब नोटबंदी को मोदी जी ने पेटीएम जैसी कंपनियों के हित में कैसलेश का अभियान बना दिया है । वे 'कैशलेस' का ऐसे उत्साह के साथ प्रचार करते हैं जैसे नगदी-विहीनता का अर्थ है 'शोषण-विहीनता' ! अर्थशास्त्र की इस अभिनव खोज के लिये क्या मोदी जी नोबेल पुरस्कार के हक़दार नहीं है ?

हाल में मुरादाबाद में अपने एक भाषण में मोदी जी जो तमाम असंलग्न बातें कह रहे थे, उनसे बार-बार उनके व्यक्तित्व का परस्पर-विरोधी चरित्र ही खुल कर सामने आ रहा था। सब जानते हैं, बड़े इजारेदार पूंजीपति तो इनकी आस्था के विषय है। अन्यथा मुकेश अंबानी ने उनकी पीठ पर हाथ न रखा होता। और मध्यवर्ग पूंजीवाद का आधार होने के नाते, मोदी जी अपने को उसका प्रतिनिधि मानते हैं। लेकिन जिसे मध्यवर्ग की राजनीतिक शक्ति कहते हैं, विवेक और बुद्धि के विचारों की शक्ति, उसके प्रति मोदी जी वैर-भाव भी रखते हैं। मध्यवर्ग रहे, लेकिन अपनी ऐतिहासिक राजनीतिक-सामाजिक भूमिका की विशिष्टता को छोड़ कर, मोदी-मोदी का जाप करने वाली भक्तों की फौज के रूप में। मोदी जी पूंजीवाद के चौखटे में किसानों, दलितों की सेवा करना चाहते हैं और इस चक्कर में कभी-कभी ऐसी मुद्राएं भी अपना लेते हैं जिन्हें देख कर वामपंथियों का भी सर चकराने लगे। लेकिन, सर्वोपरि, वे भारत के लंपट राजनीतिज्ञों के ही भाजपा नामक एक गिरोह के प्रतिनिधि है, जो हमेशा सत्ता में आकर राजकोष से अपने लिये लौटरियां निकलवाने की फिराक में रहा करते हैं।

जाहिर है, इतनी सारी परस्पर-विरोधी भूमिकाओं को निभाने वाले मोदी जी की सरकार भी उतनी ही परस्पर-विरोधिताओं से भरी होगी। वह हमेशा अंधेरे में तीर चलाने के लिये अभिशप्त है। कभी इस ओर दौड़ती है, कभी उस ओर। कभी इस वर्ग को पकड़ती है, तो कभी उसको। मोदी जी सबके हितैषी बनना चाहते हैं, जो मुमकिन नहीं है। इसीलिये वे एक प्रकार से समूचे भारत को चुरा कर उसे फिर से भारतवासियों को लौटाने और सबको कृत-कृतार्थ करने का खेल खेल रहे हैं।

नोटबंदी से उन्होंने देश भर के लोगों के धन पर दिन-दहाड़े डाका डाल कर उन्हें भिखारियों की तरह बैंकों के सामने कतार में खड़ा कर दिया और अब किश्तों में उनके धन को उन्हें दे रहे हैं; अपनी दयालुता की डुगडुगी बजवा रहे हैं। भारत को इस प्रकार अपने अधीन करके फिर उसे भारत को ही लौटाने के इस मायावी लेन-देन के बीच हम देख रहे हैं कि कमीशन के तौर पर कुछ प्रतिशत पेटिएम, रिलायंस, अडानी, माल्या की तरह के लोगों और कंपनियों और देशी-विदेशी बैंकों की जेबों में अलग से पहुंचा दिया जा रहा है।

कहना न होगा, यह और कुछ नहीं, बाज की तरह ऊंची उड़ान का धोखा देने वाले एक कौंवे की छुद्र उड़ान जैसा है जो अंत में अपने चंद खैर-ख्वाहों की जेब गर्म करने में ही अपनी बहादुरी समझता है। मुरादाबाद में भारत का प्रधानमंत्री लोगों को खुले आम अनैतिकता का पाठ भी पढ़ा रहा था। वह आम लोगों को कह रहा था कि दूसरों के रुपये मार कर बैठ जाओ। ‘बड़े लोग अब गरीबों के पैरों पर गिरे हुए हैं !’ लाईन में खड़े लोगों का, और आम भारतवासियों का मजाक उड़ाते हुए कह रहे थे अब तो भिखारी भी कार्ड से भीख लेने लगा है। मुरादाबाद के भाषण में उनमें समा रहा डर भी बोल रहा था, जब उन्होंने अपनी ‘फकीरी’ के हवाले से कभी भी झोला उठा कर चल देने की बात कही।

अभी की स्थिति यह है कि प्रधानमंत्री लोगों से कह रहे है पेटीएम या दूसरी प्लास्टिक मनि का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करो। दूसरी ओर आरबीआई के गवर्नर उर्जित पटेल लोगों से नगदी का ज्यादा इस्तेमाल करने के लिये कह रहे हैं ताकि नयी करेंसी बाज़ार में चलन में आ सके । सवाल उठता है कि क्या सरकार सचमुच पूरी तरह से दिशाहीन हो चुकी है ?

रोजाना की जाने वाली एक के बाद एक नई घोषणाओं के साथ अरुण जेटली ने कार्ड के ज़रिये भुगतान के बारे में कई प्रकार की छूट देने की घोषणा की है । जाहिर है कि नोटबंदी के संदर्भ में सरकार का अब पूरा ध्यान इस बात पर है कि नगदी की रक्षा करो । नगदी बचाने के चक्कर में दी जा रही रियायतों से सरकार के राजस्व पर जो अतिरिक्त भार आयेगा, क्या इसका कोई हिसाब किया जा रहा है ? नोटबंदी पर पड़ रहे ख़र्च में यह एक और अतिरिक्त बोझ जोड़ दिया गया है । तब क्या यह सवाल नहीं उठना चाहिए कि मोदी जी ने अपनी सनक के लिये देश के राजस्व को कितने रुपये का नुकसान पहुंचाया है जो सरासर एक आर्थिक अपराध की श्रेणी में आता है।


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