शुक्रवार, 30 दिसंबर 2016

क्यों दुनिया की बड़ी-बड़ी डिजिटलाइजेशन से जुड़ी कंपनियों के लिये भारत का गिनिपिग की तरह इस्तेमाल किया गया?

नये साल की पूर्व बेला में प्रधानमंत्री से हमारा सवाल
-अरुण माहेश्वरी



आज सारी दुनिया के अर्थशास्त्री, सभी देशों की सरकारें खुर्दबीन के साथ भारत में नोटबंदी के इस ‘भूतो न भविष्यति’ वाले  कदम के अंतिम परिणामों की जांच कर रहे हैं। मोदी जी ने भले ही ताली बजा कर यह ऐलान कर दिया हो कि वे तो चुहिया की तलाश में निकले थे और किसानों का दाना खाने वाली ‘चुहिया’ उन्हें मिल गई ; वे बेहद खुश है।

मोदी जी के लिये हर चीज का मानदंड उनकी निजी खुशी-नाखुशी हो सकती है, लेकिन दुनिया को उनके ऐसे सुख-दुख से कोई मतलब नहीं है ! वे तो सबके सब मोदी जी की इस महान कृपा के लिये उनके प्रति अंतर से आभारी है कि उन्होंने बिना मांगे ही भारत की तरह के एक विशाल और अभी तेज गति से विकसित हो रहे राष्ट्र को नये डिजिटल युग के अर्थशास्त्रीय-समाजशास्त्रीय अध्ययन का एक गिनिपिग (परीक्षण की चीज) बना दिया।

आज के समय को दुनिया में ‘नया डिजिटल युग’ कहा जा रहा हैं। गूगल कंपनी के कार्यकारी अध्यक्ष एरिक स्मिथ और उसके निदेशक जेर्ड कोहेन की प्रसिद्ध किताब है - The New Digital Age। 2013 में प्रकाशित इस किताब में आज के समाज और इसके भावी रूप के अवलोकन और भविष्यवाणी पर बहुत चर्चा होती है। इसका पहला वाक्य ही इस कथन से शुरू होता है कि ‘‘मनुष्यों द्वारा निर्मित विरल चीजों में एक इंटरनेट एक ऐसी चीज है जिसे खुद मनुष्य सचमुच नहीं समझता है।’’ (The Internet is among the few things humans have built that they don’t truly understand.)

और, आगे पूरी 260 पन्नों की यह किताब ‘इतिहास में सब-कुछ तहस-नहस कर देने वाले इस सबसे बड़े प्रयोग, इंटरनेट’ के परिणामों के नाना रूपों का आख्यान है। लेकिन इस प्रसिद्ध किताब की सारी कथाएं विकसित देशों में इंटरनेट और डिजिटलाइजेशन के क्रमिक प्रसार से जुड़ी कथाएं है। दुनिया में किसी के पास भी इस बात के कोई प्रामाणिक साक्ष्य नहीं है कि एक विकासमान गरीब देश में किसी सरकार द्वारा आम लोगों पर डिजिटलाइजेशन को जबर्दस्ती लादने के क्या परिणाम हो सकते हैं ।

हमारे प्रधानमंत्री ने मुफ्त में ही दुनिया के ऐसे सभी अध्येताओं, संगठनों और सरकारों को वे सारे प्रत्यक्ष आंकड़े मुहैय्या कराने का काम कर दिया है जिनसे अब वे अपने समाजों में डिजिटलाइजेशन के बारे में अधिक ठोस रूप में विचार करके विवेक-संगत नियम और नीतियां अपना सकेंगे। और, साथ ही साम्राज्यवादी देशों को तो दुनिया पर अपना वर्चस्व कायम करने में इस नई तकनीक के सटीक प्रयोग की रणनीति तैयार करने के लिये बहुत जरूरी तथ्य आसानी से मिल जायेंगे !

आज बहुत याद आ रही है कार्ल मार्क्स के उन लेखों की जो उन्होंने ‘उपनिवेशों के बारे में’ लिखे थे। इसमें 1953 का एक लेख है - चीन और यूरोप की क्रांति। चीन में अंग्रेजों की तोप के बल पर भारी मात्रा में किये गये अफीम के निर्यात से उत्पन्न परिस्थिति के बारे में मार्क्स लिखते हैं, ‘‘यह दावा विचित्र और विरोधाभासों से भरा लग सकता है कि यूरोप के लोगों का अगला विद्रोह और राज्य-व्यवस्था में जनतांत्रिक स्वतंत्रता ओर आर्थिक दृष्टि से शासन की बेहतर व्यवस्था के लिये चल रही लड़ाइयों का अगला दौर बहुत कुछ उन घटनाओं पर निर्भर करेगा जो आजकल यूरोप से बिल्कुल भिन्न - ‘दैवी-साम्राज्य’ (चीन-अ.मा.) - में घट रही है।"

इस लेख में मार्क्स ने चीन के खिलाफ अफीम युद्ध से चीन के व्यापार संतुलन के बुरी तरह से बिगड़ जाने और 1840 के बाद इंगलैंड को दिये जाने वाले राज्य कर , स्वदेशी उद्योगों के विनाश तथा भ्रष्ट नौकरशाही की बदौलत जनता में पैदा हो रही बगावतों तथा जनता को और विपत्ति से बचाने के लिये करों की उगाही को रोक देने की वहां के सम्राट की आज्ञप्ति का पूरा लेखा-जोखा पेश किया है। इसी सिलसिले में वे लिखते हैं कि ‘‘अब जब इंग्लैंड चीन में बगावतों का कारण बना है, सवाल उठता है कि वक्त आने पर इस प्रकार की बगावत का इंग्लैंड पर और इंग्लैंड के जरिये पूरे यूरोप पर क्या प्रभाव पड़ेगा ? इस सवाल का हल मुश्किल नहीं है। ’’

कहने का तात्पर्य यही है कि डिजिटलाइजेशन का आरोपण करने की कोशिश से किसी भी समाज में कैसी अफरा-तफरी मच सकती है और वह अंत में वह किस प्रकार की आर्थिक तबाही की ओर बढ़ सकता है, प्रधानमंत्री मोदी ने भारत के लोगों की बली चढ़ा कर सारी दुनिया को इन बातों को जान-समझ लेने का मौका दिया है। भारत को इस प्रकार गिनिपिग बनाने के इस अपराध की निंदा के लिये हमारे पास तो कोई शब्द नहीं है। नये डिजिटल युग के पश्चिम के सभी पुरोधा उनकी इस सेवा के लिये उन्हें हमेशा याद रखेंगे !

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें