-अरुण माहेश्वरी
कार्ल मार्क्स ने ‘पूंजी’ के पहले खंड के पहले अध्याय में ही पण्य (माल) और उसके मूल्य के विषय पर विस्तार से चर्चा करते हुए कहा है कि वस्तु में मूल्य उसमें लगने वाले श्रम की मात्रा से उत्पन्न होता है ; श्रम ही है जो प्रत्येक माल में जरूर पाया जाता है 1 । वे यह भी कहते है कि माल एक रहस्यमयी वस्तु इसलिये है क्योंकि मनुष्यों के श्रम का वह सामाजिक स्वरूप उनको अपने श्रम के उत्पाद का वस्तुगत लक्षण प्रतीत होता है 2 । इसके साथ ही उन्होंने एक बहुत उल्लेखनीय बात कही थी कि ‘‘ श्रम से उत्पन्न होने वाली वस्तुओं के मूल्यों के परिमाण केवल सांयोगिक ढंग से निर्धारित होते हैं।3 ('प्रतीत' और 'सांयोगिकता' पर जोर हमारा)
मार्क्स के इस कथन में हमें गौर करने की बात यह लगती है कि उन्हें माल श्रम के उत्पाद के वस्तुगत लक्षण की ‘प्रतीति’ (men’s labour appears to them as …) की तरह ही पण्य के मूल्य का निर्धारण भी महज एक ‘संयोग’ (accident) की तरह प्रतीत हुआ था।
पण्य के बाद ही मार्क्स ‘पूंजी’ के प्रारंभ में विनिमय (Exchange) से अपने तात्पर्य को बताते हुए तीसरे अध्याय में ‘मुद्रा या मालों का चलन’( Money, Or the Circulation of Commodities) के बारे में आते हैं। कहना न होगा, यह मुद्रा ही है, जो हमारे आज के भारत के संकट का एक चर्चित, मूल विषय बनी हुई है। वे मुद्रा के बारे में लिखते हैं कि ‘‘इसका मुख्य काम यह है कि वह पण्यों को उनके मूल्यों की अभिव्यक्ति के लिए सामग्री प्रदान करे।’’4
इसप्रकार, इस पूरे क्रम में देखें तो पायेंगे कि मुद्रा का मुख्य काम है श्रम के उत्पाद की वस्तुगत ‘प्रतीति’ के ‘सांयोगिक’ मूल्यों की अभिव्यक्ति की सामग्री प्रदान करना। अर्थात मुद्रा एक (श्रम के उत्पाद की) प्रतीति पर घटित (मूल्य के) संयोग की वस्तुगत अभिव्यक्ति है। गौर करने की चीज है, प्रतीति और संयोग, दोनों ही मनुष्यों के रहस्य-जगत की चीजें हैं, उनके अन्तर्मनोजगत की चीजें। और मुद्रा है इन रहस्यों की एक ठोस अभिव्यक्ति !
समय-समय पर मुद्रा के रूप बदलते रहे हैं, यह सब जानते हैं। पहले यह तांबा-सोना-चांदी की होती थी। तुगलक ने चमड़े की मुद्रा भी चलाई। फिर कागज की चल पड़ी, सोने के समतुल्य भंडार के आधार पर। केन्स ने उसे सोने आदि की तरह की किसी भी मूल्यवान वस्तु के समतुल्य-भंडार की बाध्यता से पूरी तरह मुक्त कर दिया। इससे कहीं कोई फर्क नहीं पड़ा। और, अब तो दुनिया में प्लास्टिक मनि का चलन हो रहा है। हमारे मोदी जी उसकी ओर कुछ इस प्रकार लपक रहे हैं मानो आदमी की प्रगति का राज उसकी मुद्रा में ही छिपा हुआ है !
हम जब ऊपर की चर्चा के संदर्भ में इस प्लास्टिक मनि पर सोचते हैं तो लगता है कि अब तक की सभी मुद्राओं के जरिये ‘प्रतीति’ और ‘संयोग’ की जिन अरूप परिघटनाओं को एक ठोस रूप दिया गया है, अब क्रमश: आदमी इन सभी अरूपताओं को अरूपताओं के ही, अर्थात मनुष्यों के कल्पना संसार तक में ही सीमित रखना चाहने लगा है। यह वास्तविक अर्थ-संसार के रहस्यमय, मनुष्यों के मनोजगत के कार्य-व्यापारों में पूर्ण रूपांतरण की एक बहुत ही दिलचस्प लेकिन असंभव सी कोशिश दिखाई देती है।
इसे अर्थनीतिशास्त्र का एक ऐसा उपक्रम भी कहा जा सकता है जिसमें आर्थिक सोच-विचार के बीच से मनुष्यों के भौतिक अस्तित्व को पूरी तरह से निष्क्रमित कर दिया जाएगा !
आप क्या कहेंगे इस पूरे उपक्रम को ! कृत्रिम बुद्धि वाले उत्पादन-यंत्रों के जमाने का एक पूरी तरह से कृत्रिम अर्थशास्त्र ! मनुष्य रहित अर्थशास्त्र ! द्रोन और मनुष्य रहित तमाम हथियारों के बल पर विश्व-प्रभुत्व की राजनीति से जुड़ा अर्थशास्त्र ! एक शब्द में, अन्तर्बाह्य, हर स्तर पर एक संपूर्ण ‘मानव-द्रोही’ अर्थशास्त्र !
हमारे मोदी जी को जीवन का ऐसा मानव-द्रोही रूप सचमुच बहुत लुभाता होगा ! अपनी फकीरी के हवाले से वे यही तो कह रहे हैं कि मुद्रा को लेकर लोगों में क्यों है इतना उन्माद ! हर उन्माद का सबसे डरावना पहलू तो यही होता है कि आप जितना उसकी तह में जायेंगे, उतना ही कम आपके हाथ कुछ लगेगा। लेकिन मोदीजी को हम क्या कहें। हम तो उनकी तरह साधु-संत है नहीं, जिनके लिये जीवन फानी होता हैं ! हमारा सच तो यह है कि यह उन्माद ही हमारा जीवन है। हम मरना नहीं चाहते, कि जीते जी मृत्यु का उत्सव मनाने लगे!
बहरहाल, हमारा मित्रों से यही अनुरोध है कि हमारी इस अवांतर किस्म की दार्शनिक चर्चा को अभी की नोटबंदी से जोड़ कर कत्तई न देखा जाए, क्योंकि तब यह कतारों में मर रहे और नगदी के अभाव में जीवन के लिये तरस रहे लोगों की त्रासद सचाई से मुंह मोड़ने की एक अमानवीय कोशिश ही कही जायेगी। सच यह है कि पण्य को श्रम की एक ‘प्रतीति’ और उसके मूल्य को महज ‘संयोग’ बनाने वाले पूंजीवादी तंत्र ने ही मनुष्य के जीवन को तमाम प्रकार की जड़-पूजाओं (fetishisms) से लाद रखा है। मोदी जी इस तंत्र के एक मुचे हुए पुर्जे भर है। वे संसार को मिथ्या साबित करने वाले इस खेल पर तालियां बजा सकते हैं, हम तो सिर्फ दुख और गुस्सा ही जाहिर करेंगे।
संदर्भ :
1. “As values, all commodities are only definite masses of congealed labour time.”…The secret of the expression of value, namely, that all kinds of labour are equal and equivalent, because, and so far as they are human labour in general, cannot be deciphered, until the notion of human equality has already acquired the fixity of a popular prejudice.
2. A commodity is therefore a mysterious thing, simply because in it the social character of men’s labour appears to them as an objective character stamped upon the product of that labour;
3. Its discovery, while removing all appearance of mere accidentality from the determination of the magnitude of the values of products,
4. The first chief function of money is to supply commodities with the material for the expression of their values,
इस टिप्पणी के पहले दो पैरा का किंचित स्पष्टीकरण -
यह अर्थ-शास्त्र के दो प्रमुख विषयों के संबंध के बारे में है । एक है माल और दूसरा है मुद्रा । माल अर्थात लोगों के उपयोग में आने वाली ऐसी चीज जिसके उत्पादन में आदमी की श्रम शक्ति लगती है । इसी श्रम शक्ति के निवेश को आम तौर पर माल के मूल्य का कारण माना जाता है । श्रम शक्ति ही एक ऐसी चीज है जो हर प्रकार के माल में कमोबेस पाई जाती है । अर्थशास्त्रियों का एक तबक़ा यह मानता है कि किसी भी माल का मूल्य उसमें लगने वाली श्रम शक्ति के परिमाण से तय होता है । इसी तरह से यह भी लोगों को लगता है कि माल के वस्तु रूप में ही उनका सामाजिक श्रम व्यक्त होता है ।
लेकिन मार्क्स कहते है कि माल के मूल्य में श्रम शक्ति की भूमिका होने के बावजूद सिर्फ वही बाज़ार में उसके विनिमय मूल्य को तय नहीं करती है । पूँजीवादी बाज़ार में माल के मूल्य का आधार कोई एक संघटक तत्व नहीं, बल्कि वह ऐसे ही, एक संयोग की तरह, सुविधा के अनुसार तय कर दिया जाता है ।
इस प्रकार, माल में सामाजिक श्रम की अभिव्यक्ति की 'प्रतीति' और माल के मूल्य के निर्धारण में एक प्रकार की 'संयोगिकता', मैंने अपनी टिप्पणी में इन दो चीज़ों को, जो ठोस नहीं, बल्कि मनुष्य की आत्मगत अवधारणाएँ है, उन्हें अपनी बात का आधार बनाया है । और इसी क्रम में 'मुद्रा' का प्रसंग आ जाता है जिसके ज़रिये मालों के मूल्य को अभिव्यक्ति मिलती है ।
इसी सिलसिले में हम देखते हैं कि सामाजिक श्रम के व्यक्त रूप की प्रतीति माल और उसके संयोगिक मूल्य की तरह की अवधारणामूलक चीज़ें बाज़ार में मुद्रा की तरह की एक ठोस चीज के ज़रिये व्यक्त होती है । अरूप चीज़ों का ठोस रूप ।
इसी आधार पर हमने यहाँ मुद्रा के अब तक के अनेक रूपों से लेकर प्लास्टिक मनि तक की यात्रा का जिक्र किया है जिसे अरूप चीज़ों की ठोस अभिव्यक्ति के बजाय अधिक से अधिक अरूप अभिव्यक्ति की दिशा में ही बढ़ने की कोशिश कहा गया है ।
आगे की बातें, अर्थ-चिंतन से मनुष्य की सत्ता को अलग रखने और कृत्रिम बुद्धि के आज के युग के साथ इस कोशिश के मेल की बातें तो शायद साफ़ है ।
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