रविवार, 18 दिसंबर 2016

एस गुरुमूर्ति की आंकड़ेबाजी वाला मानवद्रोही अर्थशास्त्र

- अरुण माहेश्वरी



पिछले दिनों राज्य सभा टीवी पर मैं मनोनीत सांसद और अर्थशास्त्री नरेन्द्र जाधव की बातों को सुन कर सिर पकड़ कर बैठ गया था। आंकड़ेबाजी की वह निष्ठुरता सचमुच देखते बनती थी, जब वे नोटबंदी से आम जनता के जीवन में पैदा हुए भूचाल को जरा भी तरजीह नहीं दे रहे थे, और कोरी आंकड़ेबाजी, कि बैंकों में इतना रुपया आ जाने से आगे ब्याज की दरों में गिरावट आयेगी जो प्रकारांतर से आर्थिक विकास के दूरगामी अच्छे फल देगी, की तरह की प्रवंचक सौदागरों की भाषा में खिलखिलाते हुए बोलते जा रहे थे। तब हमें बार-बार मनमोहन सिंह द्वारा उद्धृत मैनार्ड केन्स की बात याद आ रही थी कि ‘दूरगामी’ काल में तो हम मृत होंगे।

बहरहाल, नरेन्द्र जाधव की उन सारी बकवासों की तीखी आलोचना करते हुए हमने फेसबुक पर एक पोस्ट लिखी थी -‘ये खुशफहमियों की फेरीवालें’। और हमने कहा था कि ‘‘भारी उत्साह से बयान की जा रही अपनी इस पूरी कहानी में बड़ी चालाकी से वे इस प्रमुख बात को छिपा लेते हैं कि अर्थ-व्यवस्था में किये जा रहे इन तमाम प्रयोगों का सारा बोझ देश के ग़रीब मज़दूरों, किसानों और जिन्हें अर्थ-व्यवस्था के अनौपचारिक हिस्से से जुड़े लोग कहा जाता है, उनके सिर पर लाद दिया जा रहा है । पहले से ही उनकी परेशानियों से भरी ज़िंदगी को पूरी तरह से तबाह करके उन्हें भुखमरी की दिशा में ठेल दिया जा रहा है ।“

आज हमने इंडिया टीवी पर आरएसएस के अर्थशास्त्री कहे जाने वाले एस गुरुमूर्ति का ऐसा ही एक रेकर्ड किया हुआ चार दिन पहले का साक्षात्कार सुना। यहां भी वहीं खिलखिलाहट और वैसी ही कोरी आंकड़ेबाजी। गुरुमूर्ति भी बता रहे थे कि जीडीपी के 13 प्रतिशत तक नगदी की राशि के बढ़ जाने से अर्थ-व्यवस्था को नुकसान का रोना रो रहे थे और कह रहे थे कि ‘इसीके कारण अभी देश में रोजगार-विहीन विकास हो रहा है। संपत्तियों के दाम तो तीन सौ प्रतिशत बढ़ गये, लेकिन रोजगार नहीं बढ़ा। नगदी में मौजूद काला धन काली अर्थ-व्यवस्था को बढ़ावा देता है।’

गुरुमूर्ति रोजगार-विहीन विकास के लिये भारत में नगदी की मात्रा को जिस प्रकार कोस रहे थे, उसे सुन कर पता चल रहा था कि कितने सुचिंतित ढंग से ये लोग भारत की जनता को ठगने के काम में लगे हुए हैं। सारी दुनिया की अर्थ-व्यवस्था में ‘रोजगार-विहीन विकास’ की प्रवृत्ति को संयुक्त राष्ट्र संघ ने आज नहीं, लगभग दो दशक से भी ज्यादा समय पहले देख लिया था। और, जाहिर है कि वैश्वीकरण के इस दौर में, भारतीय अर्थ-व्यवस्था का भी विश्व अर्थव्यवस्था के साथ जितना जुड़ाव बढ़ेगा, उसमें वे सारी प्रवृत्तियां निश्चित तौर पर उसी अनुपात में आयेगी, जैसी दुनिया के दूसरे हिस्सों में देखी जा रही है। इस मामले में, नि:संकोच, विकसित देशों की वर्तमान सचाई को ही भारत के भी आज और भविष्य का सच कहा जा सकता है।

लेकिन, दुनिया में शायद आज तक किसी भी अर्थशास्त्री ने इसके लिये नगदी करेंसी के अनुपात को कभी अपने विचार का विषय तक नहीं बनाया है। संघ के अर्थशास्त्री गुरुमूर्ति कहते हैं नगदी की मात्रा में वृद्धि ही भारत की ऐसी सारी बीमारियों की जड़ में हैं। थामस पिकेटी जैसे जाने-माने अर्थशास्त्री ने अपने अध्ययन में पूंजीवाद के अंतर्गत आय के असमान वितरण के साथ ही संपत्तियों के मसले को अपना खास विषय बनाया है। उन्होंने भी इसमें नगदी की किसी विशेष भूमिका का कहीं कोई उल्लेख नहीं किया है। लेकिन अकेले गुरुमूर्ति ने यह खोज की है कि पूंजीवाद, उससे जुड़ा ऑटोमेशन और सूचना तकनीक के कारण सारी दुनिया के वाणिज्य का संकेंद्रण नहीं, नगदी करेंसी अर्थ-व्यवस्था में रोजगार-विहीनता की तरह की बीमारियों के मूल में हैं।

हमने अपनी एक टिप्पणी में कहा था कि नरेन्द्र मोदी नगदी-विहीनता का कुछ इस प्रकार प्रचार कर रहे हैं, मानो नगदी-विहीनता का अर्थ होता है शोषण-विहीनता और इसी के आधार पर, अर्थशास्त्र की दुनिया में मोदी की इस महान खोज के लिये हमने उन्हें नोबेल पुरस्कार का हकदार बताया था ! अब गुरुमूर्ति के बारे में भी हमारा कहना होगा कि आज की आर्थिक दुनिया की सारी बीमारियों की जड़ नगदी मुद्रा नामकी चीज में निहित है, इस खोज के लिये क्यों न उन्हें भी नरेन्द्र मोदी के साथ इस साल के नोबल पुरस्कार का संयुक्त-अधिकारी माना जाए! नगदी की जगह आप प्लास्टिक मनी का प्रयोग करने लगिये, देखिये अर्थ-व्यवस्था की सारी बीमारियां रातो-रात रफ्फू-चक्कर हो जायेगी !

कोरी आंकड़ेबाजी कितनी अमानवीय और जीवन की सचाई से दूर होती है, इसको लेकर दुनिया में अर्थनीतिशास्त्र के क्षेत्र में आंदोलनात्मक स्तर की बहसें चलती रही है। सत्तर के दशक में फ्रांस के विश्वविद्यालयों में अर्थनीतिशास्त्र के अध्ययन को कोरी आंकड़ेबाजी से मुक्त करने का छात्रों का बड़ा आंदोलन चला था, जिसकी प्रमुख दलील ही यह थी कि आंकड़ेबाजी एक प्रकार से अर्थनीति संबंधी चिंतन को आत्मलीनता की बीमारी का शिकार बनाने का उपक्रम होता है। इसकी चपेट में पड़ा हुआ अर्थनीतिविद जीवन की ठोस वास्तविकताओं से कटा हुआ ऐसी बकवासों में फंसा जाता है, जो कभी भी मनुष्यों के किसी काम की नहीं हुआ करती है। इसीलिये उन्होंने अर्थनीति को उसकी आत्मलीनता (Autism) से मुक्त कराने का नारा दिया था।

नरेन्द्र जाधव और एस गुरुमूर्ति की तरह के संघी अर्थशास्त्री, जो आज मोदी की इस भारत के लोगों को प्रताडि़त करने वाली नोटबंदी की नीतियों की हिमायत में उतरे हुए हैं, ऐसे ही मानव-द्रोही आंकड़ेबाज अर्थशास्त्रियों की श्रेणी में आते हैं जिनको कतारों में खड़े लोग, एक-एक पैसे को तरसते मजदूर, किसान और बंद होते छोटे और मंझोले कारखानें, तेजी से गहरा रही मंदी की काली छाया कहीं दिखाई नहीं देती है। दिखाई देते हैं - भविष्य में ब्याज की दरों में कटौती, जिसके बारे में रिजर्व बैंक ने अभी किसी प्रकार की प्रतिश्रुति देना तक उचित नहीं समझा है। उन्हें हंसते हुए इस बात को कहने में जरा भी संकोच नहीं होता कि आगामी मार्च महीने तक अर्थ-व्यवस्था में कुछ परेशानियां बनी रहेगी लेकिन बाद में सब धीरे-धीरे सामान्य हो जायेगा।

इनकी तुलना में हमें उन छोटे और मंझोले कारखानों के मालिकों, मंडियों के व्यापारियों और किसानों की बातें बहुत ज्यादा सच लगती है जो चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे हैं कि मोदी जी ने यह जो धक्का मारा है, इसके जख्मों से उबरने के लिये एक-दो साल भी कम पड़ेंगे।  

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें