गुरुवार, 15 दिसंबर 2016

सौ सौ चूहे खायके बिल्ली हज को चली


(प्रधानमंत्री के एक उजड्ड कदम की प्रशंसा में स्वपन दासगुप्त के लेख पर एक प्रतिक्रिया)


-अरुण माहेश्वरी

आज के सभी अखबारों की सुर्खियों में यह खबर छाई हुई है कि राहुल गांधी को लोक सभा में इसलिये नहीं बोलने दिया जा रहा है क्योंकि वे प्रधानमंत्री के निजी भ्रष्टाचार के ऐसे विस्फोटक तथ्यों को सदन में रखने वाले हैं जिनसे प्रधानमंत्री का ‘बैलून फट जायेगा’। ‘आनंदबाजार पत्रिका’ में  प्रधानमंत्री के ऐसे कुछ अपराधों की सूची भी दी गई है कि उन्होंने आदित्य बिड़ला समूह से 25 करोड़ रुपये की घूस ली ; सहारा समूह से 40 करोड़ लिये ; गुजरात में 20 हजार करोड़ का गैस भ्रष्टाचार किया ; अडानी समूल को 200 करोड़ का जुर्माना माफ करवा दिया ; और ई वालेट कंपनियों की मदद की। जब अखबारों में ऐसी खबरे छाई हुई हैं तभी आज के ‘टेलिग्राफ’ में भाजपाई सांसद और संविधान विशेषज्ञ राजीव धवन के शब्दों में एक खींसे निपोड़ने वाले पत्रकार स्वपन दासगुप्त का लेख छपा है - बेहतरी के लिये परिवर्तन ( Change for the better)। इसमें उन्होंने लिखा है ‘‘ इतिहास में ऐसे समय आते हैं जब जनतंत्र में भी परिवर्तन को लाने के लिये डंडे का प्रयोग करना पड़ता है।’’ (There are times in history when it becomes necessary to force change, even in a democracy by wielding a stick.)

अपने लेख में दासगुप्त जीवन के उन छोटे-छोटे अनुभवों का हवाला देते हैं कि कैसे एक भारतीय आदमी जीवन में हमेशा छोटी-छोटी बेइमानियों के चक्कर में रहता है। हीथ्रो हवाई अड्डे पर कस्टम ड्युटी से जुड़ी ऐसी ही एक भारतीय की बेईमानी की कहानी कहते हुए दासगुप्त ने लिखा है कि जब उन्होंने इस किस्से को एक अंग्रेज को बताया तो वह अवाक रह गया। और दासगुप्त को सबसे चौंकाने वाली बात यह लगी कि वह अंग्रेज "जीवन में कभी भी कानून का पालन न करके किसी प्रकार की बेईमानी करने की सोचता भी नहीं है।"

दासगुप्त अपने इस महान आत्मज्ञान की पोल खुद ही अपने लेख में इतिहास के उस अध्याय का वर्णन करके खोल देते हैं, जब वे भारत में अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया के शासन का जिक्र करते हैं और बताते हैं कि ‘‘कंपनी के अधिकारियों नेे भ्रष्टाचार और घूसखोरी के जो विषाणु इस समाज में डाल दिये थे वे कंपनी के शासन के अंत और रानी के शासन के बाद भी जीवित रह गये हैं।’’ (The corruption and venality the Company’s officials injected into society outlived its dissolution and the direct rule of the Crown.)

कहने का तात्पर्य यह है कि जिन अंग्रेजों ने छूत के इस रोग को हमारे समाज को दिया, स्वपन दासगुप्त उनसे ही सीखने की, ‘‘ कानून का पालन न करके किसी प्रकार की बेईमानी करने की सोच तक न पाने की’’ की सीख लेने का नुस्खा दे रहे हैं।

चौतीस साल पहले, 1982 में गुन्नार मिर्डल का तीन खंडों में महत्वपूर्ण ग्रंथ प्रकाशित हुआ था ‘एशियन ड्रामा’। मिर्डल ने इसमें भारत सहित दक्षिण एशिया के दूसरे देशों को सड़े हुए देश ( Soft State)  कहा था। उसमें साफ शब्दों में यह भी कहा गया था कि
‘‘दक्षिण एशिया में आज जो नाटक चल रहा है, वह तेजी से अपने चरम की ओर बढ़ रहा है। तनाव बढ़ रहा है : आर्थिक, सामाजिक ओर राजनीतिक तनाव।
’’कुछ अंश तक हम सभी इस नाटक में भागीदार हैं।’’
(The action in this drama is speeding towards a climax. Tension is mounting : economically, socially, and politically.
To some degree all of us are participants in this drama.)

और, भ्रष्टाचार और दुराचार के नोटबंदी वाले इस चरम मुकाम पर, जब कॉरपोरेट के हित में एक प्रधानमंत्री पूरी नग्नता के साथ उतर कर आम जनता की सारी संपदा को जबर्दस्ती लूट कर उनकी तिजोरियों की ओर ठेल देने पर आमादा है ; जब अलि एक्सप्रेस की तरह की एक चीन में स्थित बहुराष्ट्रीय कंपनी के नियंत्रणाधीन पेटीएम, या अंबानी के जियो पे या ऐसी ही दूसरी निजी कंपनियों और बड़े-बड़े पूंजीपतियों के कर्जोंं को माफ करने के काम में लगी हुई बैंकों के खजाने में देश के घरों में जमा सारे धन को पहुंचा कर नाटक यह किया जा रहा है कि इससे देश का ‘आत्मिक उत्थान’ होगा, इसके रंध्र-रंघ्र में फैल चुके भष्टाचार के जीवाणुओं का नाश होगा, तब इस नाटक के पीछे के मिथ्याचार को क्या कहा जायेगा ! यह व्यक्ति को मार कर उसे जीवन के जंजाल से मुक्त कराने का धार्मिक प्रवंचना का खेल नही तो और क्या है ?

और, स्वपन दासगुप्ता इस काम के लिये सरकार के द्वारा जनता के खिलाफ 'डंडे का इस्तेमाल करने' का अधिकार की मांग कर रहे हैं ! इसे कहते हैं, हिटलरशाही की अगवानी करने वाले एक बिक चुके बुद्धिजीवी की बौद्धिक कसरत। ये तमाम प्रकार के दलालों के समूह बनायेंगे एक ईमानदार भारत ! दासगुप्त ने नोटबंदी को एक सबसे दुस्साहसी कदम कहा है, हम इसे उसी का पर्यायवाची, एक सबसे उजड्ड कदम कहेंगे।



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