-अरुण माहेश्वरी
अर्थशास्त्र की किसी क्लासिक किताब में धन के ऐसे विविध-रंगी रूपों की कोई चर्चा नहीं मिलती। धन की चर्चा होती है, सामाजिक-आर्थिक संबंधों के निरूपण के एक महासत्य, ‘परमशिव’, ब्रह्म तत्व के रूप में! यह काला-सफेद का मसला तो महज एक सरकारी मसला है, सरकारों के राजस्व से जुड़ा मसला। राजस्व दिया हुआ हो तो सफेद, नहीं तो काला। अन्यथा, सामाजिक जीवन में उसकी भूमिका में शायद ही कोई फर्क आता है !
ऊपर से, जब सरकार विकास के पूंजीवादी रास्ते से प्रतिबद्ध हो, सामाजिक विषमता को ही समाज की गति का चालक मानती हो, तब तो शुद्ध रूप से राजस्व से जुड़े इस विषय का व्यापक मेहनतकश जनता के हितों से बहुत कम ही संबंध रह जाता है। उल्टे, जब हम देखते है कि उद्योगपतियों, राजनीतिज्ञों, नौकरशाहों, और दूसरे बड़े लोगों के बीच की चीज के इस खेल में जबर्दस्ती आम लोगों के घरों के धन को छीन लिया जाए या उसे अचल कर दिया जाए, तब तो यह पूरा खेल आम लोगों के खिलाफ एक सीधे युद्ध के अलावा और कुछ नहीं रह जाता है।
मोदी जी से सीधा सवाल किया जाना चाहिए कि आपके इस अभियान से कैसे आम जनता की भलाई होगी जबकि आप बड़े पूंजीपतियों की भलाई की कसम खाये हुए है ; जब आप डिजिटलाइजेशन से जनता के हर लेन-देने से उन्हें कमीशन दिलाने की जुगत में है ; जब आप जनता को मिलने वाली हर रियायत के सख्त विरोधी है ; जब आप खाद्य, शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास की तरह के विषयों को आम लोगों का मौलिक अधिकार मानने के बजाय इन सबसे जुड़े कामों को पूरी तरह से मुनाफे के आधार पर चलाए जाने के पक्षधर है।
कहना न होगा, मोदी जी का यह तथाकथित काला धन विरोधी अभियान एक बेहद काले मन का आम लोगों के खिलाफ सिर्फ एक दुरभिसंधिमूलक अभियान है।
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