सोमवार, 19 दिसंबर 2016

नोटबंदी पर फ्रंटलाइन का नया अंक : इस विषय के सभी पक्षों को विस्तार से समझने की एक कुंजी की तरह है


-अरुण माहेश्वरी

आठ नवंबर को जब से मोदी ने नोटबंदी की घोषणा की, हम अपनी फेसबुक वाल और अपने ‘चतुर्दिक’ ब्लाग पर इसके आर्थिक-सामाजिक और राजनीतिक आयामों पर लगातार लिखते चले आ रहे हैं। मोदी जी की घोषणा के बाद सरकार की ओर से प्राय: हर रोज एक नई घोषणा की जाती रही, और उन पर भी हम अपनी प्रतिक्रिया देते रहे। इस दौरान, हर बीतते दिन के साथ इस घोषणा के जो व्यवहारिक परिणाम दिखाई देने लगे, उनसे भी लगातार हमारी आशंकाएं सही साबित होती रही और हमने भरसक उन सबको सामने लाने की कोशिश की। इस बीच कुछ नामी-गिरामी अर्थशास्त्रियों और जीवन के दूसरे क्षेत्रों की हस्तियों ने भी इस पर अपनी प्रतिक्रियाएं दी, इसके पक्ष में भी कुछ लोगों ने कलम उठाई या अपनी बातें कही, उन सब पर भी हम लगातार संवाद करते रहे।



इन सबके बावजूद, जब हमने ‘फ्रंटलाइन’ पत्रिका के ताजा, 23 दिसंबर के अंक को देखा तो हम पत्रकारिता के इस स्तर से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। यह अपने आप में एक अनोखा अंक है, जिसमें तकरीबन बीस लेखों, रिपोर्टों और साक्षात्कारों की पूरे 100 पृष्ठों की सामग्री के जरिये भारत की अर्थ-व्यवस्था और आम जनता के जीवन को पूरी तरह से झकझोर देने वाले इस तुगलकी फैसले के तमाम पक्षों को जिस प्रकार खोल कर रखा गया है, वह इस अंक को एक महत्वपूर्ण और संग्रहणीय अंक बना देता है। यही वजह है कि हमें इस अंक की सामग्री पर किंचित विस्तार के साथ अलग से चर्चा करना बहुत समीचीन जान पड़ता है।

इसका पहला लेख वी श्रीधर का है ‘व्यथित राष्ट्र’ (A nation in agony)। किसी स्टैडियम की सीढि़यों पर बैठे दिहाड़ी मजदूर दूर से अहंकार से भरे मोदी जी को जाते हुए निराश निगाहों से देख रहे हैं, इसकी एक तस्वीर के साथ सजाया गया यह लेख बताता है कि कैसे मोदी की काला धन पर की गई इस सर्जिकल स्ट्राइक ने गरीब लोगों के जीवन को बुरी तरह से बिखेर कर रख दिया है। यह एक ऐसा कदम है जिसमें एक झटके से गरीबों की आमदनी और संपदा को अमीरों के पास इस प्रकार पहुंचा दिया गया है जिसकी आजादी के बाद से अब तक दूसरी कोई मिसाल नहीं मिलती है। श्रीधर के इस लेख में आम लोगों के जीवन पर ढाये गये इस कहर की कई कहानियों को समेटा गया है। कैसे गरीबों के घरों की शादियां रुक गई; पकी फसल को काट कर घर लाना मुश्किल होगया ; छोटे-मंझोले कल-कारखाने बंद हो गये ; तांबे की चीजों के शहर मुरादाबाद, गंजी के कपड़ों के शहर तिरुपुर, साइकिल, खेल के सामान वगैरह बनाने वाले शहर लुधियाना, चूडि़यों के शहर फिरोजाबाद, गुड़ के शहर मांड्या आदि तमाम जगहों पर मुर्दानगी छा गई। मोदी, जेटली और उर्जित पटेल की त्रिमूर्ति के ढाये इस कहर ने हजारों मजदूरों को शहरों से भाग कर फिर से गांव में पनाह लेने के लिये मजबूर किया। और सर्वोपरि, पूरा देश बैंकों के सामने कतारों में खड़ा भारी यातना और अपमान के घूट पीता रहा। श्रीधर ने अपने लेख में बहुत कायदे से नोटबंदी की मार के इन सारे पहलुओं को रखा है।

इसमें दूसरा लेख है वैंकिटेश रामकृष्णन का - राजनीतिक गुलाटियां (Political Rollercoaster) । मोदी जी ने नोटबंदी की घोषणा के साथ ही जितनी राजनीतिक गुलाटियां खाई, यह भी अपने आप में एक नायाब घटना है। पहले कहा गया कि इससे काला धन निकल जायेगा, अमीरों की नींद उड़ेगी और गरीब चैन की बंशी बजायेंगे। फिर काला धन की जगह सारा जोर कैशलेस पर चला गया। फिर आया लेस कैश। और अब वे कहने लग गये हैं कि हम तो काला धन बंद कर रहे थे और विपक्ष संसद को। नोटबंदी के लक्ष्यों के बारे में गिरगिट की तरह रंग बदलते मोदी जी के कारनामों से जनता की व्यग्रता और पीड़ा लगातार बढ़ती गई और इसके राजनीतिक परिणामों के तौर पर जो बेचैनी पैदा हुई है, वह किसी भी देश को एक भारी विस्फोटक स्थिति की ओर ले जा सकती है। रामाकृष्णन के लेख में इन सबका बहुत सही ढंग से विश्लेषण किया गया है। मोदी जी के इस कदम ने संघ परिवारियों के अंदर भी जो तनाव पैदा किया है, उसकी एक झलक इस लेख से देखने को मिलती है।

वी. वैंकटेश ने इस पूरे मामले के कानूनी पहलुओं की जांच की है। उन्होंने खास तौर पर इस बात को नोट किया है कि 1978 में इस प्रकार का जो कदम उठाया गया था, वह एक अध्यादेश के माध्यम से उठाया गया था। इस बार तो वैसी बिना किसी वैधानिक तैयारी के यह काम किया गया है, जिसके आगे सुप्रीम कोर्ट में क्या परिणाम होंगे, अभी से पूरे निश्चय के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता है।

जयति घोष ने ‘मुद्रा और सामाजिक अनुबंध’ (Money and social contract) शीर्षक लेख में कहा है कि इस कदम से हम एक ऐसे पथ की ओर कदम बढ़ा चुके हैं, जो हमारा चुना और जाना हुआ पथ नहीं है। एक गरीब आदमी के जीवन में डिजिटलाइजेशन का क्या असर पड़ सकता है, इसकी अभी कल्पना नहीं की जा सकती है। अभी तो इसने सबकों कंगाल सा बना दिया है। मुद्रा में विश्वास की कमी से लोगों के मानस पर क्या असर पड़ता है, वे कैसे अपनी विपत्ति के दिनों के लिये सोना आदि की तरह की चीजों पर भरोसे की ओर आकर्षित हो सकते हैं, इन विषयों को जयति घोष ने अपने लेख में उठाया है।


इसमें एक बहुत महत्वपूर्ण साक्षात्कार है उत्सा पटनायक का, जिसका शीर्षक दिया गया है - सरकार ने सबसे गरीब लोगों से उनकी मजूरी और काम चलाने लायक पूंजी छीन ली। श्रीमती पटनायक ने इसमें बताया है कि मोदी जी का यह कदम बताता है कि कैसे पेशेवर अर्थशास्त्रियों की जगह झोला छाप किस्म के लोगों की सलाह पर चलने के कारण मोदी जी ने इस प्रकार का एक आत्मघाती कदम उठाया है। जनता से खुद के रुपये खर्च करने का अधिकार स्वेच्छाचारी ढंग से छीन लिया गया है और सरकार कह रही है कि इसे सामान्य होने में काफी समय लग सकता है। उत्सा पटनायक ने इससे कृषि पर पड़ने दुष्प्रभाव का भी विस्तार से विवेचन किया है।

उत्सा पटनायक के कृषि क्षेत्र संबंधी कथन को ही पुष्ट करती है आर. रामकुमार, वी. श्रीधर और जी.टी.सतीश  की रिपोर्टें है - ‘ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर रोक’ और ‘नीचे के स्तर पर बर्बादी’। इसी में वैंकिटेश रामकृष्णन ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आलू में मची तबाही पर, अक्षय देशमान ने लुधियाना में धान की खेती, टी. के. राजलक्ष्मी ने रोहतक में थोक व्यापार के संकट, प्रफुल्ल दास ने उड़ीसा के कांधामल में आदिवासियों के आंसू, सुशांत तालुकदार ने असम के नलबाड़ी में निराशा के बीजों आदि की जो तमाम रिपोर्टें शामिल की गई है, वे सब नोटबंदी से पैदा हुई गरीब जनता की जिंदगी की जमीनी सचाई को सामने लाती है।


इसीप्रकार  तमाम गांव और शहरों की स्थिति और उनमें उठ रही आवाजें इस अंक की बाकी सामग्री में सुनने को मिलती है। यह पूरे 100 पन्नों की सामग्री है जिसमें अर्थनीति के बारीक तकनीकी मुद्दों से लेकर जनजीवन की ठोस सचाइयों के लगभग सभी पक्षों को समेटा गया है।

फ्रंटलाइन के इस अंक की जितनी तारीफ की जाए, कम है।

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