बुधवार, 28 दिसंबर 2016

नरेन्द्र मोदी जनतंत्र में शासन के लिये उपयुक्त व्यक्ति नजर नहीं आते

-अरुण माहेश्वरी


नोटबंदी को लेकर भारत सरकार के प्रशासन की जो भद हुई है, उसे बिल्कुल सही मनमोहन सिंह ने एक भारी प्रबंधकीय विफलता कहा था। इसने नरेन्द्र मोदी की प्रशासनिक क्षमता पर फिर एक बार गहरे प्रश्न चिन्ह खड़े कर दिये हैं। हम कूटनीति के क्षेत्र में, सीमा पर पाकिस्तान की करतूतों से निपटने के सामरिक रणनीति के क्षेत्र में इनकी विफलताओं को पहले ही देख चुके हैं। सारी दुनिया जान गई है कि यह वह गरजने वाला बादल है, जो बरसा नहीं करता, क्योंकि इसे अपनी ही वास्तविकता का ज्ञान नहीं है।

लेकिन सबसे बुनियादी सवाल तो यही है कि क्या शासन के किसी भी सिद्धांत में गर्जना का कभी कोई वास्तविक स्थान होता है ? राजसत्ता के चरित्र के अध्येताओं ने हमेशा उसे एक ऐसे सामाजिक उपकरण के रूप में ही देखा है, जो अदृश्य शक्ति के रूप में सर्वत्र मौजूद रहने पर भी, बिल्कुल प्रकट और चाक्षुस रूप में कम से कम दिखाई देती है। बहुत कम मामलों में ही उसका कोई प्रत्यक्ष हस्तक्षेप प्रकट होता है। पर्दे के पीछे से एक अदृश्य शक्ति के रूप में यह सदा-सर्वदा अपना काम करने के अहसास को बनाये रखती है।

राजसत्ता के अस्तित्व की यही स्वाभाविकता है। इसकी शक्ति का प्रदर्शन हमेशा इसप्रकार किया जाता है ताकि उसका कभी भी प्रयोग न करना पड़े। जब कहीं स्थिति के काबू के बाहर होने का अंदेशा होता है तो हम देखते है सेना का रूट मार्च कराया जाता है, ताकि लोगों में एक डर व्यापे और वे कानून को अपने हाथ में न लें। ताकत का ऐसे प्रदर्शन का मतलब ही है उसके प्रयोग न करने की स्थिति बनी रहे। और भी अच्छे प्रशासन की बड़ी पहचान राजसत्ता की ताकत को बिना प्रदर्शित किये काम निकालने की होती है। सिर्फ लोगों के मन में राजसत्ता के होने का अहसास भर जीवित रहे। यह एक प्रकार से बल के प्रदर्शन से भी इंकार का रास्ता है। राजसत्ता के प्रयोग से बचने के लिये सत्ता की ताकत के प्रदर्शन की कोशिश। और इससे भी एक कदम आगे, सत्ता की ताकत के प्रदर्शन से ही बचने की कोशिश। नकार का भी नकार।

लेकिन हमारे मोदी जी का स्वभाव तो ऐसे सभी नकारों से, अपने को अधिक से अधिक अदृश्य बनाने वाले नकारों के नकार वाला है। वे इवेंट मैनेजर है। जब तक किसी चीज का पूरे ढोल-धमाके के साथ प्रदर्शन न किया जाए तब तक तो उन्हें उस चीज के होने तक का विश्वास नहीं होता है। और ऐसे प्रदर्शन में भी वे खुद को हमेशा नाटक के केंद्र में हमेशा एक महानायक के रूप में पेश किये बिना संतुष्ट नहीं हो सकते हैं। वे पर्दे के पीछे से नहीं, मंच पर तेज प्रकाश के वृत्त में पूरे मेकअप में अपनी सारी झुर्रियों को छिपाते हुए चिर युवा दिखने पर यकीन रखते हैं। वे सर्जिकल स्ट्राइक करे या न करे, लेकिन उसका ढोल जरूर पीटेंगे और कुछ इस तरह कि लगे जैसे वह करिश्मा हमारी सेना ने नहीं, खुद प्रधानमंत्री ने अपने हाथ से किया है।

काले धन पर हाल की ‘नोटबंदी’ वाली सर्जिकल स्ट्राइक तो और भी अद्भुत है। 8 नवंबर को 500 और 1000 रुपये के नोट को कागज का एक टुकड़ा घोषित करने के शौर्य प्रदर्शन से लेकर कैशलेस, लेस कैश की तरह की अजूबी बातों और अभी हाल में लॉटरी से कुछ लोगों को पंद्रह हजार रुपये दिलाने में ही नहीं, बल्कि आम लोगों को दूसरों का रुपया मार कर बैठ जाने की महान सीख देने के मामले में भी वे जिस प्रकार किसी विज्ञापन के मॉडल वाले उत्साह का परिचय देते रहे हैं, उसकी सचमुच किसी राष्ट्रप्रधान के व्यवहार में कल्पना भी नहीं की जा सकती है।

2014 के लोकसभा चुनाव के वक़्त बाबा रामदेव और आरएसएस के कुछ लोगों ने देश से आयकर ख़त्म कर देने का एक प्रस्ताव दिया था और इसके विकल्प के तौर पर उन्होंने ट्रांजेक्शन टैक्स, अर्थात, हर लेन-देन पर कर लगाने का प्रस्ताव दिया था । मोदी जी ने आयकर तो नहीं हटाया लेकिन डिजिटलाइजेशन के कार्यक्रम को अपना कर उन्होंने लेन-देन पर एक प्रकार का ऐसा कर लगाने का कार्यक्रम अपना लिया है जो सरकारी ख़ज़ाने में जाने के बजाय अधिकांश निजी कंपनियों के ख़ज़ाने में जायेगा । इनके साथ रिजर्व बैंक की रुपे स्कीम को भी शामिल किया गया है, लेकिन उससे भी सरकारी राजस्व में योगदान नहीं होगा । मोदी-जेटली जोड़ी के इस अभियान में पेटीएम की तरह की विदेशी मिल्कियत की कंपनी और सभी देशी-विदेशी बैंक और कई निजी कंपनियाँ बड़े उत्साह के साथ लग गयी हैं । किसी भी सरकार की कॉरपोरेट के दलाल की ऐसी नग्न भूमिका में कल्पना तक करना नामुमकिन है । संसद से मुँह चुराने वाले नरेन्द्र मोदी विपक्ष पर संसद को न चलने देने का आरोप लगा रहे हैं । यहाँ भी वे एक झूठ बात को बार-बार दोहरा कर सच बनाने की चालाकी में लगे हुए दिखाई देते हैं ।

मोदी जी में प्रशासन के लिये जरूरी सूक्ष्म बुद्धि का यह अभाव ही बताता है कि वे जनतांत्रिक व्यवस्था में प्रशासन के लिये एक अनुपयुक्त व्यक्ति हैं। वास्तविकता के विपरीत अपनी महत्वाकांक्षाओं की धुन में वे कुछ ऐसे निर्णय लेते हैं जिनसे उत्पन्न तनावों से एक तेज गति से चलने वाला सामाजिक नाटक शुरू हो जाता है। जैसे-जैसे नाटक आगे बढ़ता है, इस नाटक के प्रमुख पात्रों की उच्चाकांक्षा और जीवन के अवरुद्ध यथार्थ के बीच एक चौड़ी खाई पैदा होती जाती है। नेता की महत्वाकांक्षा के परिणामों को तब कोई भी स्वीकारने के लिये तैयार नहीं रहता। सिर्फ आम लोग ही नहीं, खुद नेता के अनुयायी भी। और यह खाई बढ़ते-बढ़ते फल यह होता है कि आकांक्षाएं जितनी ज्यादा और तेज गति से चलती है, पीछे उपलब्धियां उतनी ही कम, घिसटती रह जाती हैं।

 ‘टेलिग्राफ’ में एक खबर छपी थी – ‘करेंसी ‘कुलियों’ के रूप में सेना की तैनाती’ । इस खबर में विस्तार से बताया गया था कि पश्चिम बंगाल के पश्चिम मिदनापुर के साल्बनी करेंसी प्रिंटिंग प्रेस में भारतीय वायुसेना के 120 जवानों को तैनात किया गया है, ताकि यहां छप रहे नोटों को वे देश के सभी इलाकों में जल्दी से पहुंचा सके। इसी प्रकार मध्यप्रदेश के देवास के प्रेस में भी सेना के जवानों की टुकडि़यां तैनात की गई है। पहले तक यह काम बैंकों और हवाई सेवाओं के कर्मचारी कर रहे थे। आज इस काम में शत्रु से लड़ने के लिये प्रशिक्षित सेना के जवानों को लगाया गया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि उन्हें लड़ाई का प्रशिक्षण मिला हुआ है, नोटों की छपाई का नहीं। आज वे शुद्ध रूप में कुली का काम कर रहे हैं। रिपोर्ट में सेना के एक अधिकारी की बात को उद्धृत करते हुए कहा गया है - ‘‘आज सैनिक कुली बन गये हैं। हम कायिक श्रम करते हैं देश के शत्रुओं से लड़ने के लिये। अब सरकार ने हमें इस काम में लगा दिया है।’’
यह सिलसिला एक महीने से चल रहा है। वे अब तक नोटों से भरे जहाजों की तकरीबन एक सौ फेरियां लगा चुके हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि एयर चीफ मार्शल अरूप राहा, जो जल्द ही सेवानिवृत होने वाले है और जो लड़ाकू विमान के पायलट रहे हैं, आज अपने सैनिक जीवन की अंतिम वेला में वे नोटों की ढुलाई की तदारिकी कर रहे हैं। इसीप्रकार, उनकी जगह कमान संभालने के लिये आने वाले एयर मार्शल बिरेन्दर सिंह धानोआ भी लड़ाकू विमानों की योजनाओं और युद्ध की रणनीति से जुड़े व्यक्ति हैं, उन्हें भी अब वायुसेना प्रमुख के पद पर आने के बाद नगदी की ढुलाई के काम की देख-रेख में लगना पड़ेगा। अभी चंद दिन पहले ही अपने एक लेख, ‘सरकार के स्वेच्छाचार के दुष्परिणामों का डर’ में हमने सिविलियन कामों के लिये सेना के लगातार दुष्प्रयोगों के खतरों की ओर गंभीरता से संकेत किया था।

मोदी जी की प्रशासनिक क्षमताओं की यही सचाई है। ऐसे गर्जन-तर्जन वाले नेता किसी भी राष्ट्र को उन्मादित करके ज्यादा से ज्यादा आत्म-विध्वंस की ओर ले जा सकते हैं, स्थिर रह कर समाज के सकारात्मक निर्माण को दिशा नहीं दे सकते। यही दुनिया के तानाशाहों का इतिहास है। मोदी जी अपवाद नहीं साबित होंगे।

आज देश भर में बिड़ला और सहारा समूह द्वारा खुद मोदी जी को घूस दिये जाने को लेकर जोरों से चर्चा चल रही है। इसे सबसे पहले सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने उठाया था जिस पर अभी सुनवाई चल रही है। फिर इससे जुड़े सारे कागजातों को अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली की विधान सभा में पेश किया। और अब विपक्ष के नेता राहुल गांधी हर जन सभा में इसे जोर-शोर से उठा रहे हैं। राहुल के तेवर और उनकी जनसभाओं में उमड़ती भीड़, और दूसरी ओर इस विषय पर मोदी जी की खामोशी को देख कर यह साफ है कि अब मोदी जी के नीचे से जमीन खिसकने लगी है। रविशंकर प्रसाद ने मोदी जी को गंगा की तरह पवित्र बताया है । लेकिन उनकी इस टिप्पणी के साथ ही चारों ओर गंगा के मैली होने बात की गूंज सुनाई देने लगी है। लोग कहने लगे हैं कि अगर गंगा मैली न होती तो उमा भारती उसे साफ करने के लिये क्यों अरबों रुपये ख़र्च कर रही है ?

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